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Showing posts from 2012

हरा रेगिस्तान

इस बाग़ में अब जाने का जी नहीं करता, अब यहाँ कुछ नहीं बचा! कभी यहाँ हर ओर खिलखिलाती कलियाँ हुआ करती थी, खूबसूरत फूल महका करते थे। यहाँ से गुजरी हवा से भी अदब की खुशबू आया करती थी। जाने कहाँ से वो मनचले भँवरे आ कर बस गए इस बाग़ में! और नोच डाला उन्होंने ये बाग़  बड़ी बेतरतीबी से! कलियाँ, फूल..  फलों के बौर को भी नहीं छोड़ा उन्होंने !! कहते हैं, बहुत मिन्नतें और गुहार लगायी थी कलियों ने माली से, पर वो आँख पर पट्टी बांधे, हाथ में तराजू लिए  पुराने सौदे ही पूरे करने में ही मशगूल था। अब न कलियाँ है, न फूल हैं, पर वो भँवरे अब भी  बेधड़क  घूम रहे हैं, फिर नोच डालने को तैयार अगले मौसम में!! अब ये बाग़ बेबस, डरा हुआ, कांटे सहेज रहा है.. और कलियों के न खिलने की दुआ कर रहा है। ये बाग़ अब हरा रेगिस्तान नज़र आता है। जाने कितने ही अरमानो का कब्रिस्तान नज़र आता है। इस बाग़ में अब जाने का जी नहीं करता,  अब यहाँ कुछ नहीं बचा!! बेंगलोर  20/12/2012

हिंदी

( हिंदी दिवस के अवसर पर )  हिंदी, तुम मेरी प्रथम भाषा नहीं हो,  पर दिल के करीब हो. पहली भाषा तो मैंने सिर्फ आँखों की सीखी थी,  जब आँखों से बहते ख़ुशी के आंसू देखकर परिवार क्या है.. जान लिया था. दूसरी भाषा हँसने-रोने की थी, जब जान गया था कि बिन बोले कैसे अपनी बात मनवानी है.  तीसरी तुम्हारी बहन मराठी थी, जिसने मुझे मेरे पहले २ शब्द दिए थे.. "आई, बाबा" तुम चौथी थी. पर जब तुम आई तो, मेरे विचारो को शब्द मिल गए थे.. तुमने मुझे दोस्त दिए.. मेरी दुनिया का दायरा बढा दिया.. मेरी पहचान तुमसे है.. मेरे विचार तुमसे है.. कहीं मुझमे तुम बसती हो, हमेशा  मेरे साथ चलती हो.. हिंदी, तुम मेरी प्रथम भाषा नहीं हो,  पर दिल के करीब हो! १४ सितम्बर २०१२ ( हिंदी  दिवस) पुणे 

खुदा ताकता है।

कहाँ से मैंने शुरू किया था, कितनी दूर चल निकला हूँ , वक्त ही एक फीता है जो , मेरे पीछे मेरा फासला नापता है। कितने गुनाह सीने मे दफ़न किए थे, और कितनी अच्छियाँ उन आँखों को दिखाई थी, अकेले मे जब मेरा ईमान नंगा होता है, आँखों का पूरा मोहल्ला झांकता है। वक्त से भी दौड़ ना लडूं.. उन सारी आँखों की भी परवाह ना करूँ.. पर ख़ुद से छुपकर जाऊंगा कहाँ .. उसे आँखों की ज़रूरत नही पड़ती, जो अन्दर ज़मीर से मेरा खुदा ताकता है ।।

Half asleep

आँखों की दीवार आधी ढह चुकी थी, ख्वाब, मानो बस देहरी पर खड़े थे कि एक कम उम्र का ख्याल कहीं से दौड़ता हुआ आया, और बिना दस्तक दिए पहले अन्दर आ गया. ख्याल छोटा सा ही था पर किसी तार्किक बच्चे कि तरह, reasons, logic और practicality की बातें करता था. जल्दी मानने वाला नहीं था वो, ये बात ख्वाब को भी पता थी इसलिए खवाब भी बाहर इंतज़ार करते बैठ गया.. इन छोटे ख्यालों से मुझे बेहद चिढ है, ये अकेले नहीं आते. मोहल्ले के बच्चे जैसे चौकलेट बाटने वाले दादाजी को देखते ही १-१ कर जमा हो जाते हैं, बस वैसे ही, १-१ करके आते गए. और मैं उन सबको समझता-समझाता रहा. रात कटती जा रही थी, और मेरी आधी बंद आँखे पूरी बंद नहीं हो पा रही थी. आखिर मैं झल्लाया.. "बस बहुत हुआ, अब जाओ यहाँ से !! मुझे सुबह ऑफिस भी जाना है.." कहकर सारे ख्यालों को भगाया और अपनी comfortable position में लेटकर, आँखे पूरी बंद करके इशारों में खवाब को बोला, "आ जाओ और आते वक्त दरवाज़ा बंद करके आना." उन खयालो ने नींद और मेरे बीच अजीब दीवार खडी कर दी थी, खवाब सिरहाने ही थे, पर मैं सारी रात जाग रहा था.. जून ९, २०१२ ग...

पिकनिक

बचपन में पड़ोस की गली में एक घर था जहां सारे बुज़ुर्ग रहते थे.. सुबह से रात तक बातें ही करते रहते थे.. जाने कितनी बातें थीं उनके पास ! झुर्रियों, धब्बों में चेहरे यूँ खोए थे कि हंसता-रोता चेहरा एक सा ही लगता था.. बाल जितने सफ़ेद थे, आँखों की कटोरियाँ  उतनी ही अँधेरी काली.. जाने किस आहट को सुनकर सब अक्सर गली में "कौन आया" ये देखते रहते थे,  अक्सर तो कोई कहीं और ही होता था, और कभी-कभी तो कोई होता भी नहीं. बड़े कहते थे कि उनके बच्चे  उनको  पिकनिक पर छोड़ कर गए हैं ..  और मैं सोचता था कि काश इतनी लम्बी पिकनिक हमें भी मिल पाती..  बुज़ुर्ग होना बहुत अच्छा होता है.. मैं हमेशा सोचता था की जब बूढा हूँगा तो अपने दोस्तों के साथ ऐसे ही रहूँगा,  पर अब घर से दूर रहकर समझ आता है, कि पिकनिक का पूरा होना बहुत ज़रूरी होता है. घर जाना बहुत ज़रूरी होता है ... घर  होना  बहुत ज़रूरी होता है..  पिकनिक का पूरा होना बहुत ज़रूरी होता है.... मई १५, २०१२  पुणे ...

सूरज का बचपना

अजब बचपना है सूरज का, सुबह सुबह उठकर जिद करने लगता है ! पूरे मोहल्ले को जगा देता है..  किसी आम तोड़ने के लिए चढ़ते बच्चे की तरह जैसे, तने पर धीरे और फिर पहली शाख मिलते ही सरपट ऊपर चढ़ जाता है. फिर पेट भर कर धीरे-धीरे नीचे उतर कर चुपके से ओझल हो जाता है.. दिन भर बहुत हुडदंग मचाता है ये. और फिर शाम ढलते, जब माँ थाली में चाँद परोसकर देती है, खा पी कर रात की रजाई में सिकुड़कर सो जाता है..  तब कहीं ज़मीनी मोहल्ले वाले चैन से सो पाते हैं.  अजब बचपना है सूरज का.... February 5, 2012

सन्नाटा

कल सन्नाटे से सामना हुआ, तो वो ख़ामोशी की चादर ओढ़े बैठा था. मैंने कुछ लफ़्ज़ों से चादर को टटोला, तो मूंह फुलाकर बैठ गया.. दोस्ती का हाथ बढाया तो उसने  मूंह फेर लिया,  एक अरसे से देखा नहीं था तो पहचानने से भी इनकार कर दिया.. फिर मेरे साथ अकेलापन भी आया है देखकर मुस्कुराया, कुछ पुरानी बात चली, तो मौसम ही बन गया.. फिर रात भर मैं, अकेलापन और सन्नाटा  बेलफ्ज़ ज़बां में बात करते रहे, और शराब थी, कि गिलास में गिरते और गले से उतरते हुए शोर मचाती रही... अगली बार हमारी बातों की महफ़िल में शराब को नहीं लायेंगे ... February 4, 2012

तेरे साथ रहूँगा मैं..

आज हूँ, कल नहीं रहूँगा मैं. ख़ाक बनकर हवा में उड़ता रहूँगा मैं..  कभी धूल का गुबार बनकर बाहों में भर लूँगा, कभी आँखों में किरकिरी बनकर तुझे परेशान करूंगा मैं.. कभी पहली बारिश में सौंधी खुशबू बनूँगा, फिर छज्जे से गिरती बूँद के साथ जुड़कर तुझे छू लूँगा मैं.. हर राह पर तेरे क़दमों के साथ चलूँगा, पलकों के बाल पर मांगी तेरी दुआ भी  खुदा तक पहुचाऊँगा मैं.. जब रुखसत करोगी खुद को ज़िन्दगी से, किसी अपने के हाथों तुझ पर गिरूंगा और तेरा हो जाऊंगा मैं.. तेरे साथ रहूँगा मैं...  12/02/2012

'Goa'

This poem is about the way I saw goa when we 3 childhood friends (Milind, Sarva & I) visited ' Goa ' some time back.. कुछ बात है इस ज़मीन में, कि यहाँ सब आते हैं.  अपना रंग, अपनी ज़बान, अपनी पहचान पीछे छोड़कर.. कुछ हम जैसे भूरे, जो गोरों कि तरह पानी के अंग्रेजी खेल खेलने आते हैं. और कुछ गोरे जो धुप में लेटकर हमारी तरह भूरा होने कि कोशिश करते हैं.. कम कपड़ों में चमकते जिस्म.. किसी नंगेपन से ज्यादा आजादी दिखाते हैं. जैसे किसी ने बरसों से पहना सामाजिक ज़िम्मेदारी का लबादा उतार दिया हो पानी और शराब यहाँ कुछ यूँ मिले-जुले से लगते हैं, जैसे बचपन से हम ३ इंसान साथ रहते-रहते अब शायद १ ही रह गए हैं.. हम ज़रूर वहां से लौटकर फिर वही हो गए हैं.. जैसे हम पहले थे.. पर वहां हवा, ज़मीन, पानी, आसमान और धूप में     (The 5 elements) खुद कि असलियत से सामना हो जाता है.. कहीं ना कहीं हम खुद को पा लेते हैं  शायद यही कुछ बात है इस ज़मीन में कि यहाँ सब आते हैं.. अपना रंग.. अपनी ज़बान.. अपनी पहचान .. सब पीछे छोड़कर ......

सितारों की उम्र

किताबों में पढ़ा है कि कई  सि तारे हमारी धरती से भी पुराने हैं ... सोचता हूँ  तो याद आती है बरसातों की वो रातें जब बिजली जाया करती थी. रात में मेरे टेबल पर उस बड़ी मोमबत्ती के इर्द-गिर्द पतंगे नाचा करते थे.. मैं कभी पढ़ते-पढ़ते वहीँ टेबल पर सिर रखकर सो जाता था. रात को माँ मुझे बिस्तर पर सोने को कहती और मेरे सोने के बाद मोमबत्ती बुझा देती थी. मैं सुबह उठता तो सिर्फ मोमबत्ती जिंदा रहती और पतंगे जल चुके होते थे.. कुछ गर्मी से आह़त पतंगों  की लाशें मेरी किताब के खुले पन्नों में मिलती थी. अब जब घर में कभी बिजली नहीं जाती, तो मैं अक्सर बालकनी में रात देखने जाता हूँ. आसमान पर हर रात चाँद जलता है और सितारे इर्द-गिर्द नाचते हैं.. मैं अक्सर उनको देखकर खुद-ब-खुद आकर बिस्तर पर सो जाता हूँ. माँ दूर शहर में है, उसे पता नहीं कि मैं सोया हूँ या नहीं.. तो वो उसे जलता ही छोड़ देती ...

एक इल्तजा

शायद मुझे तुम पेड़ समझते हो, बस बोलते हो.. मेरी कभी सुनते नहीं.. शायद सोचते हो कि मेरी कोई उम्मीदें नहीं तुमसे ! जब खुश होते हो, मुझपर झूला डाल लेते हो, और मुझे २ पल कि हंसी का कारण बताकर खुश कर देते हो, फिर वो खुशी मैं तुमसे मांगता रह जाता हूँ, पर तुम नहीं आते.  जब भी परेशानी कि ठण्ड से कपकपाते हो,  मेरे सपनो कि कोई डाल काट कर सुलगा लेते हो.. शायद मेरे सपनो कि कोई एहमियत नहीं तुम्हे ! मैं जानता हूँ कि कभी एक छोटी सी बात पर, फिर किसी परिंदे कि तरह उड़ जाओगे तुम,  अपना दर्द का घोसला मेरी ही किसी डाल पर छोड़कर.. पर उससे पहले मेरी एक इल्तेजा है, एक बार ईमान से हँसकर मुझे गले लगा लेना, फिर ख़ुशी से जल जाऊंगा मैं अरमानो कि किसी भी बेतुकी होली में..... 1 January 2012