Skip to main content

पिकनिक


बचपन में पड़ोस की गली में एक घर था जहां सारे बुज़ुर्ग रहते थे..
सुबह से रात तक बातें ही करते रहते थे.. जाने कितनी बातें थीं उनके पास !

झुर्रियों, धब्बों में चेहरे यूँ खोए थे कि हंसता-रोता चेहरा एक सा ही लगता था..
बाल जितने सफ़ेद थे, आँखों की कटोरियाँ उतनी ही अँधेरी काली..

जाने किस आहट को सुनकर सब अक्सर गली में "कौन आया" ये देखते रहते थे, 
अक्सर तो कोई कहीं और ही होता था, और कभी-कभी तो कोई होता भी नहीं.

बड़े कहते थे कि उनके बच्चे उनको पिकनिक पर छोड़ कर गए हैं .. 
और मैं सोचता था कि काश इतनी लम्बी पिकनिक हमें भी मिल पाती..  बुज़ुर्ग होना बहुत अच्छा होता है..
मैं हमेशा सोचता था की जब बूढा हूँगा तो अपने दोस्तों के साथ ऐसे ही रहूँगा, 

पर अब घर से दूर रहकर समझ आता है, कि पिकनिक का पूरा होना बहुत ज़रूरी होता है.
घर जाना बहुत ज़रूरी होता है ... घर होना बहुत ज़रूरी होता है.. 
पिकनिक का पूरा होना बहुत ज़रूरी होता है....

मई १५, २०१२ 
पुणे

Comments

Sarvanand said…
Ultimate bhai..
Naya Gulzar nazar aa raha he...
Deepa said…
just too good... picnic poori kar le...i have options for u to make a home here in pune :)

Popular posts from this blog

अटल

डूब रहा था क्षितिज पर सूर्य,  चंद्रमा पटल पर आने में झिझकता, लड़ रहा था योद्धा मृत्यु से,  मन से मुस्कुराता, ना कि तड़पता। जानता था, वो कहीं नहीं जा रहा है।  वो तो वट वृक्ष है जिसकी जड़ें गहरी उतरी है मनों में। वो तो नए पौधों - बेलों को बनाता है, पक्षियों को स्थान देता है, बढ़ते देखता है। तुम्हारे विचारो की अनगिनत जड़ों से जन्मा हूं,  मूल्यों के तने को थामे जीवन चढ़ा हूं, कविताओं की शाखाओं पर झूला हूं, तुम 'अक्षयवट' की छाव में मिट्टी थामे खड़ा हूं । तुम मुझमें अजर हो। तुम  मुझमें  अमर हो। विश्वास के रूप में तुम में मैं अटल हूं, विचार के रूप में मुझमें तुम अटल हो। बेंगलुरू १६/०८/२०१८

जीवन की दौड़

फिर आ ही गया जन्मदिन, और मैं अपने सफर को नाप रहा हूँ..  दिन हफ्ते महीने साल दशकों में अपनी यात्रा के पड़ाव ढूंढता हूँ और सोच रहा हूँ की जीवन की इस दौड़ में कौन दौड़ रहा है..  समय या मैं ?? सब कहते हैं की समय के साथ चलो, वरना समय आगे निकल जायेगा..  पर सोचता हूँ कि शायद समय अपनी दौड़ दौड़ रहा हो, और उसे उसके पड़ाव मुझमे मिले! तो समय भी बाध्य होगा मेरा इंतज़ार करने के लिए..  अगर मैं हालात के सबक ले लूँ, तो उसका पड़ाव पार.. वरना रुकता हो वो मेरा इंतज़ार करते हुए।    लेकिन फिर देखता हूँ कि कभी मैं चाहता हूँ समय तेज़ी से गुज़रे पर वो धीमा वो जाता है! और मैं बाध्य हो जाता हूँ वो देखने और और महसूस करने के लिए जो मुझे पसंद भी नहीं! और कभी कितनी भी कोशिश करो, अच्छा समय भी रोके नहीं रुकता! अब जब दिन हफ्ते महीने साल दशकों में अपनी यात्रा के पड़ाव ढूढ़ने निकला, उसी राह में समय मिला, मेरे अनुभवों के फीते से अपने सफर की लम्बाई नापता हुआ..  समझना आसान था, साथ ही दौड़ रहे हैं.. "समय और मैं"।  २ दिसंबर, २०१४...

असहाय

जीवन में अपनी पसंद का कुछ ना कर पाने से कहीं अधिक बुरा होता है, अपनी पसंद कुछ ना होना। एक बहुत ही विचित्र स्थिति होती है, जब आपको अपनी पसंद का खाना, जगह, रुचि आदि याद भी न हो। मैं कुछ ऐसे दौर में हूँ कि मेरा जीवन दूसरे तय करते हैं। मेरी आवश्यकताएं दूसरे निर्धारित करते हैं। मेरी पसंद दूसरे मर्यादित करते हैं। जैसे सर्कस का जोकर सिर्फ वही कर सकता है,  जो सर्कस के मालिक को तालियां सुनवाए। जो करीबी है वो इतना करीब रहना चाहता है कि दम घुट जाए। और जो दूर है वह यूँ ही तो दूर नहीं! नज़र सबकी यूँ जमी हैं कि हँसे तो हँसे क्यों और रोये तो वह भी क्यों भला!  सही और गलत की सारी सही परिभाषाएं दूसरों के पास हैं और साथ है ढेरों टिप्पणियां । लेकिन मुझ पर तरस मत खाओ मैं सिर्फ मैं ही नहीं, तुम भी हूँ! परिस्थितियों से असहाय मैं हूँ तो आदतों से असहाय तुम भी हो। एक दिन ऊर्जा की तरह बदल जाऊंगा मैं! उस दिन, तुम अपनी आदत के साथ रहोगे असहाय...