डूब रहा था क्षितिज पर सूर्य,
चंद्रमा पटल पर आने में झिझकता,
लड़ रहा था योद्धा मृत्यु से,
मन से मुस्कुराता, ना कि तड़पता।
जानता था, वो कहीं नहीं जा रहा है।
वो तो वट वृक्ष है जिसकी जड़ें गहरी उतरी है मनों में।
वो तो नए पौधों - बेलों को बनाता है,
पक्षियों को स्थान देता है, बढ़ते देखता है।
तुम्हारे विचारो की अनगिनत जड़ों से जन्मा हूं,
मूल्यों के तने को थामे जीवन चढ़ा हूं,
कविताओं की शाखाओं पर झूला हूं,
तुम 'अक्षयवट' की छाव में मिट्टी थामे खड़ा हूं ।
तुम मुझमें अमर हो।
विश्वास के रूप में तुम में मैं अटल हूं,
विचार के रूप में मुझमें तुम अटल हो।
बेंगलुरू
१६/०८/२०१८
Comments