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'Goa'

This poem is about the way I saw goa when we 3 childhood friends (Milind, Sarva & I) visited 'Goa' some time back..


कुछ बात है इस ज़मीन में, कि यहाँ सब आते हैं. 
अपना रंग, अपनी ज़बान, अपनी पहचान पीछे छोड़कर..

कुछ हम जैसे भूरे, जो गोरों कि तरह पानी के अंग्रेजी खेल खेलने आते हैं.
और कुछ गोरे जो धुप में लेटकर हमारी तरह भूरा होने कि कोशिश करते हैं..

कम कपड़ों में चमकते जिस्म.. किसी नंगेपन से ज्यादा आजादी दिखाते हैं.
जैसे किसी ने बरसों से पहना सामाजिक ज़िम्मेदारी का लबादा उतार दिया हो

पानी और शराब यहाँ कुछ यूँ मिले-जुले से लगते हैं,
जैसे बचपन से हम ३ इंसान साथ रहते-रहते अब शायद १ ही रह गए हैं..

हम ज़रूर वहां से लौटकर फिर वही हो गए हैं.. जैसे हम पहले थे..
पर वहां हवा, ज़मीन, पानी, आसमान और धूप में     (The 5 elements)
खुद कि असलियत से सामना हो जाता है..
कहीं ना कहीं हम खुद को पा लेते हैं 

शायद यही कुछ बात है इस ज़मीन में कि यहाँ सब आते हैं..
अपना रंग.. अपनी ज़बान.. अपनी पहचान .. सब पीछे छोड़कर .......

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