एक अर्से से तुमको देखा नहीं दोस्त ..
अब इतने दूर हैं कि यादो में भी एक दुसरे का रास्ता नहीं भूलते !
याद तो नहीं कि आखरी बार तुम्हे कब देखा था
पर हाँ शक्ल याद है, आवाज़ याद है.. अंदाज़ याद है..
अब भी वैसे ही लगते हो.. मासूम छोटे बच्चे से!
कमाल है कि तुम अब भी उतने ही हो, और मैं हूँ कि बढ़ता जा रहा हूँ!
ये याद भी बड़ी मज़ेदार चीज़ है, वक्त भी रोककर रख लेती है.
वर्ना एक मैं.. जिसके हाथ से वक्त यूँ फिसलता है कि रेत भी शर्मा जाए.
कम्बख्त ये वक्त शायद मेरे पास ही यूँ तेल चुपड़ कर आता है,
मानो कुश्ती लड़ने आया हो मुझसे!
हाँ.. वैसे वो लड़ता भी है.. पछाड़ता भी है..
और जैसे ही मैं सोचता हूँ कि अब इसे पकड़कर पटखनी दे दूंगा,
सरसराता हुआ हाथ से निकल जाता है..
मेरा बचपन भी यूँही हाथों से कहीं फिसल गया है
शायद तुम्हारी यादों में महफूज़ हो !
क्यूँ न यूँ करैं कि फिर मिलें, और लौटा दें एक दुसरे को
अपना-अपना बचपन.. अपनी-अपनी मासूमियत !
चलो अब आ भी जाओ
एक अर्से से तुमको देखा नहीं दोस्त!
२८ मार्च २०१४
Comments