जब मन के महासागर में तूफ़ान सा मच उठता है, मानो देव-दानव सागर मंथन कर रहे हों.. कितना कुछ आता है सतह पर यूँही, लेकिन न उसकी आकृति समझ आती है, न प्रकृति । कभी-कभी विष भी निकलता है, राग, द्वेष, पीड़ा, कुंठा का और स्वयं शिव बनकर पीना पड़ता है । मनसागर के मंथन में डूब जाता है सब कुछ, अहम भी... स्वयं भी .. जब लील लेता है ये सागर अपने आप में.. और डूबकर छटपटाहट समाप्त होती है, तब अमृत निकलता है ... और मिलती है.. अभिव्यक्ति बैंगलुरु १५ - फरवरी - २०१६
Poetry is my best mate during loneliness. Below are the few colors of this best mate of mine. :)