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Showing posts from 2013

माज़ी (Past)

जाने ये क्यूँ हमेशा साए कि तरह मेरे पीछे-पीछे चलता रहता है ! जहाँ से भी मैं गुज़रता हूँ, पिछले हर कदम की मिटटी पोटली में भर लेता है. जीत, हार, बनते-बिखरते रिश्ते, ख़ुशी, हंसी, आंसू, आह, दर्द सब सहेज लेता है, जो सब मैं पीछे फेकता हूँ, वो भी समेट लेता है..  कमबख्त कुछ तो छोड़ दे! जब भी कभी आँख बंद करता हूँ,  किसी बच्चे कि तरह कूद कर सामने आ जाता है, और किसी फेरी वाले की तरह पोटली में से चुन-चुन कर सब दिखाता है. खैर.. कौन समझाए इसे..  अनजाने ही सही, मेरा माज़ी मेरा  दुश्मन भी  है.. दोस्त भी . मई १५, २०१२  पुणे

Engagement ring

अंगूठी न हुई मानो मछली पकड़ने का काँटा है! कितने लम्हे पकड़ लेती है..  पिछली दफा जब तुमने मुझे कहा था की मीठा कम खाओ,  मैं तो किसी सरसराती मछली की तरह बच निकला था. पर अब जब भी कभी मीठा खाने को उठाता हूँ,  कमबख्त वो लम्हा अंगूठी पर पालथी मारे बैठा मुह फुलाकर मुझे चिढाता है..  और याद है वो movie जो इतने जतन से देखने गए थे, और बिलकुल डब्बा निकली थी. कुछ ६०० रुपये  में  अपनी ही बेवकूफी पर "हमारी" पहली हंसी थी वो. फ़ोन चर्चा, street shopping और न जाने कितनी ऐसी यादें, अंगूठी पर design बनकर बैठी हैं, मैं खाली बैठे-बैठे अंगूठी घुमाता जाता हूँ, और कितने ही लम्हों की मछलियाँ साफ़ नज़र आती हैं..  अंगूठी न हुई मानो मछली पकड़ने का काँटा है! कितने लम्हे पकड़ लेती है.. बैंगलोर  २३ - अगस्त - २०१३ 

"शर्मसार"

आसमां से गिरता एक सितारा देखकर जैसे कोई पुराना दुश्मन मिल गया था..  मैं जानता था, कि कई लोग आँखे मूंदे दुआ मांग होंगे .. पर मैं उसकी आँखों में आँखे डाले देखता रहा .. एक टक ! अक्सर बंद पलकों के पीछे गिरते, वो कहीं छुप जाता था पर आज मेरे सामने आँखे झुकाए खड़ा था..  शर्मसार.. वो जानता था मैं उससे क्या कहना चाहता था ख़ामोशी का शोर जैसे उसके कान के परदे चीर रहा था। कुछ देर की चुप्पी तोड़ते हुए मैंने उससे पूछा  "कहाँ थे तुम जब मुझे तुम्हारी ज़रूरत थी ? यूँ तो दधिची बने फिरते हो!! " हाथ जोड़े पहली दफा सर उठाकर वो बोला, "जब मैं आसमान से गिर रहा होता था,  तुम आँखे बंद कर लेते थे। कभी सहारा देने के ख्याल से हाथ बढाया होता, तो अपने हिस्से का आसमान ही दे देता।" ज़मीन पर खड़े-खड़े  ही मैं अपने आप में कई आसमान गिरा.. अब मैं आँखे झुकाए खड़ा था  .. शर्मसार बेंगलोर  १९ - अप्रैल - २०१३ 

रिश्ते

जब बड़े शहर की रात के उजाले में अँधेरा ढूंढने निकला, तो वो रोशन रात ख़त्म ही न होती थी.. जैसे कहीं अँधेरा ही न होगा शायद! पर ये उजाला कैसा! रात का साथी तो अँधेरा ही था! रात और अँधेरे की वफ़ा की कहानी शायद अनकही थी.. मगर थी। रात ने अँधेरे को दगा दिया होगा? या अँधेरे ने रात को? मैं अक्सर सोचा करता था कि  रात अँधेरे से है या अँधेरा रात से ? आखिर कौन किसे मुकम्मल करता है ? आसमान की जानिब तकते, रात को जगमगाते हुए तो देख लिया, पर ज़ेहन में अँधेरे के लिए फ़िक्र बढ़ रही थी। कहीं वो कुछ कर तो न बैठा होगा ? बालकनी से बिस्तर तक का रास्ता शायद कई ख्यालों लम्बा होता, पर जाने क्यूँ ज़ेहन ठंडा सा था। बस बेखयाल सी फ़िक्र थी.. अँधेरे की । ज़हन में एक ख्याल की करवट से अचानक मैं चौंक गया.. वो मेरे ज़ेहन में था! उस उजली सी रात में मैं ज़रूर जाग रहा था, लेकिन अरसे बाद मेरे ज़हन में मेरे ख्याल चैन की नींद सो रहे थे। "कुछ फ़िक्र, कुछ जज़्बात ही शायद रिश्ते मुकम्मल करते हैं। अब रात उजाले में मुकम्मल थी.. और अँधेरा ...