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Showing posts from January, 2013

रिश्ते

जब बड़े शहर की रात के उजाले में अँधेरा ढूंढने निकला, तो वो रोशन रात ख़त्म ही न होती थी.. जैसे कहीं अँधेरा ही न होगा शायद! पर ये उजाला कैसा! रात का साथी तो अँधेरा ही था! रात और अँधेरे की वफ़ा की कहानी शायद अनकही थी.. मगर थी। रात ने अँधेरे को दगा दिया होगा? या अँधेरे ने रात को? मैं अक्सर सोचा करता था कि  रात अँधेरे से है या अँधेरा रात से ? आखिर कौन किसे मुकम्मल करता है ? आसमान की जानिब तकते, रात को जगमगाते हुए तो देख लिया, पर ज़ेहन में अँधेरे के लिए फ़िक्र बढ़ रही थी। कहीं वो कुछ कर तो न बैठा होगा ? बालकनी से बिस्तर तक का रास्ता शायद कई ख्यालों लम्बा होता, पर जाने क्यूँ ज़ेहन ठंडा सा था। बस बेखयाल सी फ़िक्र थी.. अँधेरे की । ज़हन में एक ख्याल की करवट से अचानक मैं चौंक गया.. वो मेरे ज़ेहन में था! उस उजली सी रात में मैं ज़रूर जाग रहा था, लेकिन अरसे बाद मेरे ज़हन में मेरे ख्याल चैन की नींद सो रहे थे। "कुछ फ़िक्र, कुछ जज़्बात ही शायद रिश्ते मुकम्मल करते हैं। अब रात उजाले में मुकम्मल थी.. और अँधेरा ...