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असहाय

जीवन में अपनी पसंद का कुछ ना कर पाने से कहीं अधिक बुरा होता है, अपनी पसंद कुछ ना होना। एक बहुत ही विचित्र स्थिति होती है, जब आपको अपनी पसंद का खाना, जगह, रुचि आदि याद भी न हो। मैं कुछ ऐसे दौर में हूँ कि मेरा जीवन दूसरे तय करते हैं। मेरी आवश्यकताएं दूसरे निर्धारित करते हैं। मेरी पसंद दूसरे मर्यादित करते हैं। जैसे सर्कस का जोकर सिर्फ वही कर सकता है,  जो सर्कस के मालिक को तालियां सुनवाए। जो करीबी है वो इतना करीब रहना चाहता है कि दम घुट जाए। और जो दूर है वह यूँ ही तो दूर नहीं! नज़र सबकी यूँ जमी हैं कि हँसे तो हँसे क्यों और रोये तो वह भी क्यों भला!  सही और गलत की सारी सही परिभाषाएं दूसरों के पास हैं और साथ है ढेरों टिप्पणियां । लेकिन मुझ पर तरस मत खाओ मैं सिर्फ मैं ही नहीं, तुम भी हूँ! परिस्थितियों से असहाय मैं हूँ तो आदतों से असहाय तुम भी हो। एक दिन ऊर्जा की तरह बदल जाऊंगा मैं! उस दिन, तुम अपनी आदत के साथ रहोगे असहाय...
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अटल

डूब रहा था क्षितिज पर सूर्य,  चंद्रमा पटल पर आने में झिझकता, लड़ रहा था योद्धा मृत्यु से,  मन से मुस्कुराता, ना कि तड़पता। जानता था, वो कहीं नहीं जा रहा है।  वो तो वट वृक्ष है जिसकी जड़ें गहरी उतरी है मनों में। वो तो नए पौधों - बेलों को बनाता है, पक्षियों को स्थान देता है, बढ़ते देखता है। तुम्हारे विचारो की अनगिनत जड़ों से जन्मा हूं,  मूल्यों के तने को थामे जीवन चढ़ा हूं, कविताओं की शाखाओं पर झूला हूं, तुम 'अक्षयवट' की छाव में मिट्टी थामे खड़ा हूं । तुम मुझमें अजर हो। तुम  मुझमें  अमर हो। विश्वास के रूप में तुम में मैं अटल हूं, विचार के रूप में मुझमें तुम अटल हो। बेंगलुरू १६/०८/२०१८

वो रुका हुआ लम्हा

वो लम्हा जब सब थम सा जाता है...  शायद कुछ बेहतर होने से पहले का लम्हा।   जैसे स्कूटर को धकेलकर स्टार्ट करते वक़्त,  उसका गीयर में अटकना और  शुरू हो जाना !  जैसे शिकार के वक़्त शेर का धीमे से पास पहुंचकर रुक जाना, या उसी लम्हे में हिरन का एक पल शांत होकर फिर बेतहाशा भागना और गुम हो जाना .. हर थमे हुए लम्हे से कुछ तो शुरू होता है..  और बिग बैंग भी तो यूँ ही हुआ होगा ना ! सिकुचा सिमटा सा ब्रह्माण्ड, एक पल को थमा होगा, और फट पड़ा होगा हमेशा बढ़ते जाने के लिए..  हाँ याद है मुझे जब मैंने तुम्हे पहली बार देखा था.   तुमने कैफे में कदम रखा था और वो बातें करते लोग, आर्डर लेता वेटर,  म्यूजिक, सड़क का शोर, मेरी सासें और वक़्त .. सब थम ही तो गया था|  वो लम्हा जब सब थम सा जाता है...  कुछ बेहतर होने से पहले का लम्हा।  ३१ अगस्त २०१७  बैंगलोर 

अभिव्यक्ति

जब मन के  महासागर में तूफ़ान सा मच उठता है, मानो देव-दानव सागर मंथन कर रहे हों..  कितना कुछ आता है सतह पर यूँही, लेकिन न उसकी आकृति समझ आती है, न प्रकृति ।  कभी-कभी विष भी निकलता है, राग, द्वेष, पीड़ा, कुंठा का  और स्वयं शिव बनकर पीना पड़ता है ।  मनसागर के मंथन में डूब जाता है सब कुछ, अहम भी... स्वयं भी .. जब लील लेता है ये सागर अपने आप में..    और डूबकर छटपटाहट समाप्त होती है,  तब अमृत निकलता है ...  और मिलती है.. अभिव्यक्ति  बैंगलुरु  १५ - फरवरी - २०१६ 

चितकबरी सी ये ज़िन्दगी

चितकबरी सी ये ज़िन्दगी, बहुत कन्फ्यूज़ करती है.. कुछ अर्धसत्य सी लगती है..  जीवन और मृत्यु दोनों ही  सत्य माने जाते हैं , लेकिन मृत्यु किसने देखी है।   हर साल पतझड़ आता है जाने कितनी जाने लेकर जाता है , कौन उसे महामारी कहता है।   बस मनुष्य की अपनी सीमित सोच के अनुरूप सीमित सी लगती है.. चितकबरी सी ये ज़िन्दगी बहुत कन्फ्यूज़ करती है..  कुछ अर्धसत्य सी लगती है..    व्यवहार की परिभाषा अपनी है, दूसरो के लिये है | अपनी आँखों में तो अंतर्मन उधड़ा सा लगता है।  शर्मिंदगी की बैसाखी पर ज़िन्दगी आगे बढ़ती  है| फिर भी मुस्कराहट के साथ आँखे रौशनी से चमकती हैं |   चितकबरी सी ये ज़िन्दगी बहुत कन्फ्यूज़ करती है.. कुछ अर्धसत्य सी लगती है..  बैंगलोर  २८ जुलाई २०१५ 

आओ मिलकर तोड़ें तारे

लद गया है आसमान का पेड़ इतने तारो से  की अब  पकते है और टूट गिरते हैं  इससे पहले की गिरकर ख़त्म, हो जाए सारे आओ मिलकर तोड़ ले कुछ तारे  बिगबैंग ने जो बीज डाला था,  अरसा लगा होगा पेड़ खड़ा होने में | कितनी ही बारिशो ने सींचा होगा, जो ठन्डे बौर से अब चमकते फल बने है .. सोचता हूँ कि ना जाने पके तारे का स्वाद कैसा होता होगा ! मिठ्ठू ने कहा कि किसी तोते ने भी नहीं चखा है आज तक  घर की सारी  मिर्ची खा कर इतना ही बोला बदमाश ! खैर उम्मीद है आम सा मीठा ही होगा ..  कल रात ही गिरते तारे को ढूंढने भागा था | जब धरती ख़त्म हो गयी, तो रुक गया था | वो तारा किसी और के ग्रह में जा गिरा था | अब ऊंची डगाल से गिरे तारे का अंदाज़ा लगाना आसान भी तो नहीं ... आओ कुछ और ऊंची गुलेल मारें.. इससे पहले की गिरकर ख़त्म, हो जाए सारे, आओ मिलकर तोड़ ले कुछ तारे || बेंगलोर  २६ जुलाई २०१५ 

जीवन की दौड़

फिर आ ही गया जन्मदिन, और मैं अपने सफर को नाप रहा हूँ..  दिन हफ्ते महीने साल दशकों में अपनी यात्रा के पड़ाव ढूंढता हूँ और सोच रहा हूँ की जीवन की इस दौड़ में कौन दौड़ रहा है..  समय या मैं ?? सब कहते हैं की समय के साथ चलो, वरना समय आगे निकल जायेगा..  पर सोचता हूँ कि शायद समय अपनी दौड़ दौड़ रहा हो, और उसे उसके पड़ाव मुझमे मिले! तो समय भी बाध्य होगा मेरा इंतज़ार करने के लिए..  अगर मैं हालात के सबक ले लूँ, तो उसका पड़ाव पार.. वरना रुकता हो वो मेरा इंतज़ार करते हुए।    लेकिन फिर देखता हूँ कि कभी मैं चाहता हूँ समय तेज़ी से गुज़रे पर वो धीमा वो जाता है! और मैं बाध्य हो जाता हूँ वो देखने और और महसूस करने के लिए जो मुझे पसंद भी नहीं! और कभी कितनी भी कोशिश करो, अच्छा समय भी रोके नहीं रुकता! अब जब दिन हफ्ते महीने साल दशकों में अपनी यात्रा के पड़ाव ढूढ़ने निकला, उसी राह में समय मिला, मेरे अनुभवों के फीते से अपने सफर की लम्बाई नापता हुआ..  समझना आसान था, साथ ही दौड़ रहे हैं.. "समय और मैं"।  २ दिसंबर, २०१४  बेंगलुरु